रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 31


दान की चीजों का क्या होता है ?बड़े बड़े मंदिरों में सोना चांदी पैसा बैंको में पड़ा रहता है ।तिजोरी में सैकड़ों साल से सोना चांदी भर रहा है ।कुछ स्कूल कालेज भी चला रहे है ।एक दान और था जो बहुत तेजी से चला ,विनोवा भावे ने जिसे चलाया था "भूमी दान ।"

सन् 1964 में विनोवा जी रायपुर आये थे ।सर्वोदय लिखा हुआ जरमन के छेद वाले डिब्बे बांटे गये ,जिससे पैसे की बचत करना सिखाया गया ।पुलिस ग्राऊंड से साइंस कालेज ग्राऊंड तक पैदल गये थे ।मैं उनके पीछ पीछे चल रही थी ।यह याद मेरे मन में आज तक है ।मेरा तेज चलना यहाँ पर एक वरदान बन गया ।क्ई लोग साथ छोड़ दिये पर मैं हांफते हुये पूरे मंच तक गई थी ।

दीदी एम ए पूर्व में थी वह भी खादी की साड़ी पहन कर कालेज गई थी ।सांइस कालेज में उसकी ड्यूटी थी ।मैं तो तीसरी कक्षा में थी ।विनोवा जी अपने पीछे मुझे अंत तक पहुँचते देख कर मुस्कुराये थे ।मुझे उनका वह दाढ़ी वाला चेहरा आज तक याद है ।

यहाँ से जाने के बाद उन्होंने गांवों का दौरा किया ।गांव में लोगों से जमीन दान में मांगी ।बहुत से ऐसे दाऊ और मालगुजार थे जिनके पास सैकड़ो एकड़ जमीन थी ।गांव में ऐसे लोग भी थे जिनके पास जमीन नहीं थी ,वे लोग दूसरों के खेत में मजदूरी करते थे ।कुछ किसानों की जमीन कर्ज की वजह से बिक गई थी ।उन सब को जमीन देना चाहते थे ।

जिस गांव में जाकर बैठते वही जमीन देने वालों की लाइन लग जाती थी ।हजारों एकड़ जमीन "भूदान" में मिली ।उसका बटवारा भी होते गया ।कुछ जमीन को सोच समझ कर बाद में बांटने के लिये छोड़ दिया गया ।विनोवा जी ने एक विचार का रोपण कर दिया था ।क्ई सालों तक जमीन दान में आती रही और बंटती रही ।

कहते है न कि बैल को डंडे से जिसे छत्तीसगढ़ में " तुतारी "कहते है ,से हांकोगे तभी तक सीधे रास्ते पर चलता है ।छोड़ दोगे तो अपनी मर्जी का रास्ता तय करता है । "भूदान "एक बहुत ही अच्छी सोच थी ।इसका विरोध नहीं हुआ ।छत्तीसगढ़ तो दानी लोगों की धरती है ,मेहमान भगवान होता है ।भगवान ने कुछ मांगा था तो लोगों ने दिल खोल कर दिया ।

इस दान की जमीन का क्या हुआ ?आज भी सैकड़ो एकड़ जमीन परती पड़ी है ।दान की जमीन बांटने में विवाद ,जरुरतमंद की कमी ,कुछ सरकारी दांवपेंच में उलझ कर जमीन अपने सम्मान के लिये रो रही है ।यह जमीन का भी बैंक होता तो वहाँ रखने पर ब्याज मिलता ।यह धरती दिनों दिन बंजर होती जा रही है ।

कम से कम इस बंजर "भूदान " की धरती का सम्मान तो हो ,उस पर वृक्षारोपण कर सम्मानित किया जाये ।उस जमीन पर स्कूल बने ।बंजर होती धरती को फिर से किसी को खेती करने को दी जाये या फिर लोग उसपर छोटी सी फुलवारी ही बना ले ।मैने एक बार यह प्रश्न गांव में किया था तो लोगों ने बताया कि ऐसे किसी को भी नहीं दे सकते ।अरे भई उस पर जरूरतमंद व्यक्ति कुछ तो उगा कर खा सकता ।कुछ नहीं तो लोग श्रम दान से खेती करें और उस पैसे का उपयोग गांव के विकास में करें ।भूदान का मतलब ही था गरीबों का विकास ,गरीबों को मालिक बनाना ।छोटा सा जमीन का टुकड़ा मानसिक गरीबी को खतम करता है ।ऐसे दान देने का उत्साह कभी कभी ही देखने में आता है ।पर उसका सही उपयोग न हो पाना पीड़ा दायक है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें