पोला का त्योंहार आ रहा है ।यह यादों का ऐसा पिटारा लेकर आया जो आज सोच भी नहीं सकते ।लेन देन का ऐसा सम्बन्ध जो सिर्फ सुना गया हो ।
हमारे घर के पास ही मंगल बाजार था ।यह मंगल और शुक्रवार को भरता था ।ईदगाहभाठा का यह बाजार ऐसे जगह पर था ।जहाँ पर रायपुरा और महादेवघाट के उस पार के गांव के लोग सब्जियां बेचने आते थे ।कुशालपुर भी गाँव था वहाँ से भी सब्जी आती थी ।दुधाधारी मंदिर के आसपास की सब्जियां आती थी ।फल ,खिलौने ,मनियारी ,कपड़े के साथ साथ मिट्टी के बर्तन भी बिकते थे ।
मिट्टी के मटके हांडी और परई तवा के अलावा गमले भी बिकते थे ।यह सामान कुम्हार स्वयं रायपुरा से पूरे दिन लाते रहते थे ।बड़े बड़े टोकने में पैदल लेकर आते थे ।कभी बैल गाड़ी में भी लाते थे ।समय के हिसाब से ये मिट्टी के बर्तन बिकते थे ।गर्मी में लाल मटके रहते थे ।काली हंडी बारहों महिने बिकते थे ।दीवाली के समय मिट्टी के दिये और कलश बड़े दिये जिसे छत्तीसगढ़ में नांदी कहते है बेचते थे ।
अक्षय तृतिया पर मिट्टी के पुतरा पुतरी याने गुड्डा गुड़िया बना कर बेचने लाते थे ।पोला के समय तो नांदिया बैल और पोरा चुकी , जांता याने चक्की,चुल्हा ,बेलन पाटा , कढ़ाई , बांगा याने चांवल पकाने का बड़ा पात्र यह सब मिट्टी से बना कर बेचने लाते थे ।बचे हुये सामान को कैसे ले जायें ये समस्या रहती थी ।वहां पर सब छोटे छोटे घर थे ।एक हमारा ही घर था जहाँ बहुत बड़ा आंगन था और एक तरफ खपरे वाले छै कमरे थे ।यहाँ गाय थी ।एक में पैरा था एक में लकड़ी थी एक में कंडे थे ,बाकी दो कमरे खाली थे । ये लोग पानी भी हमारे घर पर ही पीते थे ।बचे सामान को रात होने पर माँ से पूछ कर रख देते थे ।दूसरे दिन ले जाते थे ।यह सिलसिला चलते चलते कुछ ऐसा प्यार हो गया कि ऐ लोग अब बाजार के पहले दिन ही लाकर हमारे घर पर सारा सामान लाकर रखने लगे ।
हर मौसम में ऐसा होता कि ज्यादा सामान लाना पड़ता था तो अब हमारे घर के दो कमरे उनके लिये ही रख देते थे ।हमारे घर पर खेती से जो अनाज आता था उसे भी वे लोग जान गये थे ।धीरे धीरे एक दूसरे के गाँव को भी जान गये क्योंकि हमारा गांव पाटन भी उधर ही था ।अब माँ कुछ खरीदती तो पैसा नहीं लेते थे ।माँ ने साफ कह दिया कि मैं मुफ्त में कुछ नहीं लुंगी । वे लोग कभी साड़ी ले जाते कभी दाल ले जाते थे ।कभी कभी आचार लेकर ही दो मटके दे जाते थे ।दीवाली में तो एक साड़ी लेकर ही जाते थे ।सभी पुरानी साड़ी ही रहती थी ।
पोला का त्यौहार याने खिलौनों की बहार रहती थी ।लड़कियों के लिये पूरे गृहस्थी का सामान रहता था ।लड़कों के लिये नांदिया बैल रहता था ।एक टोकनें में बहुत से खिलौने रख कर वापस जाते थे ।माँ से उस समय कुछ नही लेते थे ।त्यौहार से वापस आने पर बाजार के दिन घर जाते समय आंगन में बैठ जाते थे ।माँ उनको लाखड़ी की दाल करीब दो पायली याने दो किलो , कनकी करीब तीन चार पायली ,एक साड़ी और आम का आचार देती थी ।वे लोग पैर छुकर प्रणाम करते और "मया दया रखे रहिबे माँ "कह कर चले जाते थे।उनके कहने का मतलब था " प्रेम और दया बनाये रखना ।"
यह हर त्यौहार के समय होता था ।जब उनके घर में मेहमान आते थे तो भी लाखड़ी की दाल और कनकी लेकर जाते थे ।गरीबी बहुत थी पैसा तो बाहरी चीजों की खरीद दारी में खतम हो जाती थी पर खाने का इंतजाम इसी तरह से हो जाता था ।बड़े घरों में धान की कुटाई होती और फटकने के बाद जो कनकी निकलती थी उसका उपयोग आटा बनाने में या फिर गरीब तबके को सामान के बदले देने के काम में आता था ।
सब्जी के बदले भी कनकी देते थे ।कभी कभी तो लोग काम के बदले भी कनकी और दाल ले जाते थे ।माँ हमेंशा दाल कनकी और आचार बांटने को तत्पर रहती थी ।आचार भी आठ सौ आमो का डालती थी जो सिर्फ बांटने के काम आता था ।
हमारी शादी हो गई ।दीदी भी यहीं रहने आ गई ।पोला दीवालीऔर गरमी के मटके हम दोनों बहनो के लिये भी रख देती थी ।हम लोग उसे साड़ी दे देते थे ।यह लेन देन
अब दिखता नहीं ।काम करने वाले पैसा लेगे साथ ही खा पीकर जायेंगे ।कुछ काम पैसा लेकर भी नहीं करेंगे ।सामान खरीदो तो तौल में मार देंगे ।
काश वो दिन लौट आते जहाँ पर प्यार से व्यापार होता ।वो खिलौनौ से भरा कमरा आज भी आंखो के सामने दिखता है ।वह मेहनत जब बनाते थे पकाते थे और रंग कर हमारे घर के कमरे में लाकर भरते थे ।इसे बाजार के दिन ,दिन भर ढो कर बाजार ले जाते थे ।पूरे दिन की मेहनत के बाद कनकी से बना भात या पेज पीकर चैन की नींद सोते थे ।आज वह मेहनत नहीं है ,मेहनत है तो बाजार नहीं है ।
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