आज शिक्षण पद्धति पर प्रश्न उठता है ।स्कूली शिक्षा के स्तर पर प्रश्न उठता है।व्यवसायिक शिक्षा की बात होती है ,तब मुझे अपने स्कूल के कुछ साल याद आते हैं। सबसेपहले के जी की पढ़ाई याद आती है ।रायपुर के सालेम स्कूल में ही के जी था ।
मैं जब के जी के क्लास में पहुंची तो देखी की बच्चे तीन चार के समूह में बैठकर खेल रहे है ।कुछ लोग कागज पर रंग भर रहे हैं ।मैं बैठ गई। मुझे भी कागज पर खरगोश बना हुआ दिया गया ।वेक्स कलर दिया गया ।मैनेै रंग भरा ।अब पूरी क्लास मेरी हो गई ।सब से दोस्ती हो गई ।सारे बच्चे मेरे बराबर के थे ।
रोज बाहर खेलने मिलता था । मैदान में रीठा का पेड़ था।हम लोग रीठा तोड़ा करते थे ।तितली पकड़ते थे । फिर क्लास में बैठकर क्ले को सांचे में भर कर फूल और जानवर बनाते थे ।सबसे बड़ी बात हमने वहाँ सीखी, मिलकर खेलना और कुछ नया बनाना ।
तीन चार बच्चों को एक बोरी सागोन के गुटके दे दिये जाते थे ।गुटके याने ब्लाक ।इससे तरह तरह के घर बनाते थे ।पूरा गांव बना लेते थे ।इससे क्रियात्मिकता बढ़ती थी ।आज के बच्चों में यह कमी देखती हूँ तो बहुत दुख होता है ।बच्चों को खेलने ही नहीं मिलता है ।गृहकार्य का बोझ अलग से रहता है ।
मुझे कभी भी कमरे में बंद रहकर पढ़ना अच्छा नहीं लगा ।मैं हमेंशा कमरे के बाहर ही देखती थी ,पर गुटकों से खेलना और रंग भरना मुझे अच्छा लगता था । मेरे जीवन में सृजनात्मक क्षमता का विकास यहीं से शुरु हुआ
क्ले के अलावा मिट्टी के खिलौने भी बनाते थे । पेपर काट कर तोरन और फूल भी बनाते थे ।मैं यहां दो साल पढ़ने के बाद दूसरी और तीसरी की पढ़ाई छत्तरपुर में की ।
वहाँ की पढ़ाई में सुबह व्यायाम और एक घंटे तकली कातने का अनुभव रहा ।तकली कात कर धागे को लपेटे में लपेटना और लटी बनाना बड़ा अच्छा लगता था। दो सालों में बहुत सी लटियां बना ली । छतरपुर से रायपुर आये तो माँ ने मेरे सारे सामानों के साथ लटी को भी सम्हाल कर ले आई ।
यहाँ पर भी तकली कात कर लटी बनाती रही ।मैं दानी स्कूल में पढ़ने लगी ।स्कूल जाते समय सत्तीबाजार के खादीभंडार को पार करते थे ।मैं अपनी माँ के साथ खादी भंडार जाती थी ।माँ काका के लिये बनियान और शर्ट का कपड़ा खरीदती थी ।मामा के लिये धोती और कुर्ते का कपड़ा खरीदती थी ।मैं अपने लिये पोनी वहीं से खरीदती थी ।
उन्होंनेएक दिनमुझे पूछा पोनी का क्या करती हो ? मैंने कहा कातती हूँ ।उन्होंने पूछा कात कर क्या करती हो मैंने कहा लटी बनाती हूँ ।बहुत सारी लटी है ।बोरे में रखते जा रही हूँ ।उन्होंने कहा सबको लेकर आना ,उसका कपड़ा बनायेंगे ।मैं माँ के साथ सब लटी लेकर वहाँ गई ।उन्होंने मुझे करीब तीन मीटर कपड़ा दिया ।पीले रंग का छोटे छोटे फूलों वाला कपड़ा था ।माँ कपड़े घर पर ही सिला करती थी ।मेरे लिये एक फ्राक बनाया गया माँ ने अपने लिये एक ब्लाऊज बनाया बनाया ।बहुत गौरव से इसे पहनती और सबको बताती के यह मेरे काते धागों से बना है ।
मुझे रविन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा पद्धति पर एक आलेख तैयार करना था ।मैंने बहुत अध्ययन किया । टैगोर जी को बंद कमरे में पढ़ना पसंद नहीं था ।उन्होंने प्रकृति के साथ खुले मे पढ़ने पर जोर दिया है ।और ये यादें बाहर आ गई ।सच में आज बच्चा कमरे में बंद है कोर्स और गृह कार्य का इतना बोझ है कि बच्चा खेल ही नही पाता है ।ठीक से पढ़ नहीं सकता है।
हम लोगों ने जीवन को जिया है ।बचपन में बहुत खेला और पढ़ाई भी की ।जीवन के सच को जाना और प्रकृति का आनंद भी लिया ।स्कूलों में तब खेल और बागवानी का कालखंड होता था ।लड़कों को बढ़ई का काम और रस्सी बनाना सिखाया जाता था ।
बुनियादी शिक्षा ने बहुत कुछ दिया।जीवन को जीने के लायक बनाया । उसके बंद होने के बाद आज बच्चों को पढ़ाई का बोझ तो है ही साथ ही डिग्री लेने के बाद भो जीवन बोझ बन रहा है ।बदलती शिक्षण पद्धति,माँ बाप पर बोझ बन गई है। क्या हम पचास साल पीछे के शिक्षण पद्धति को प्राथमिक स्तर पर ला सकते है ?जहाँ पर बचपन खुलकर जी सके। जीवन में कुछ बना कर कमा सके ।आत्मनिर्भर बन सके ।
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