रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 40


"विद्या दान परम दान " की सोच रखने वाले काका ने माँ को पढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया ।पुरानी चौथी तक पढ़ने वाली माँ को कभी चुल्हे चौके तक नहीं रखा ।1947 में ही जगदलपुर चले गये थे ।वहाँ पर माँ को सिलाई करने के लिये प्रोत्साहित किये ओर उषा सिलाई मशीन खरीद दिये थे ।कल्याण पत्रिका मंगवाते थे ।बच्चों की पुस्तकें पढ़ने को कहते थे ।

माँ की दिनचर्या में पढ़ना था ।वह दोपहर को पढ़ती थीं ।पेपर में और पत्रिका में आने वाली कढ़ाई की डिजाइनो को अपने चादर तकिया खोल और पेटी कोट में बनाया करती थी । पाक विधियों को पढ़ कर बनाने का प्रयास करती थीं ।कभी मंदिर चली जाती थी बहुत पूजा पाठ नहीं करती थी ।सिलाई कढ़ाई बुनाई में बहुत रुची थी ।गुलाब जामुन खाजा अनरसा गुझिया बड़े शौक से बनाती थी और उतने ही शौक से दूसरों को खिलाती थीं ।

घर पर उनके बनाये चादर पर्दे तकिया गिलाफ देखने लोग आते थे ।घर हमेंशा सजा सजा रहता था ।तीज त्योहार में तरह तरह की आल्पना बनाती थी हम लोग छत्तीसगढ़ में उसे "च्ऊंक " कहते हैं ।भीगे चांवल को पीस कर च्ऊंक बनाई जाती है ।अगहन मास में गुरुवार को लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है ।माँ उसे बहुत ही उत्साह से मनाती थी ।एक माह तक घर सुन्दर दिखता है ।हमारे छत्तीसगढ़ में धन लक्ष्मी की नहीं धान्य लक्ष्मी की पूजा होती है ।घरों में मिंजाई के बाद धान घरों मे लाया जाता है ।उस समय घर के आंगन को बुधवार को गोबर से लीपते थे ।आंगन में अलपना बनाई जाती है ।शहरों में भी इसे मनाया जाता है यह हमारी संस्कृति है ।माँ भी घर में चौकी पर लक्ष्मी विष्णु की फोटो रख कर धान के झालर और आंवले की डगाल से सजा कर पूजा करती थी ।मैने इसी पूजा को माँ को नियम से करते देखी थी ।

चार बजे उठ कर नहा कर पूजा करती थी ।उसके बाद खाना बनाने का आम करती थी ।दोपहर की पूजा होती थी उसके बाद खाना खाती थी ।दोपहर को चीला चौसेला पूरन पूड़ी बेसन की बर्फी खीर चढ़ाया जाता है ।माँ य। सब बड़ी तन्मयता से करती थी। शाम को लाची दाना मेवा चढ़ाती थी ।

रात को सब को खिला पिला कर हार बनाना और हल्की ठंडी में शरीर को ढक कर आंगन में च्ऊंक पूरना मुझे आज भी याद आता है ।शायद यह सब आज हम लोग नहीं कर पाते इस कारण रह रह कर याद आते रहता है ।

हम लोग रात को पढ़ते थे तो माँ भी पुस्तक लेकर बैठ जाती थी ।कुछ न कुछ पढ़ते रहती थी ।सबसे बड़ी बात घर में बैठने आने वाली महिलाओं को समाचार बताती थी । दिखाती भी थी ।धर्मयुग के लेख कहानी पर चर्चा भी करती थी बैठक के दरवाजे पर बैठ कर पढ़ती थी तो आने जाने वाले पूछते थे तो उनको भी समाचार बताती थी ।माँ को पढ़ते हुये देख कर लोग उनकी बहुत इज्जत करते थे ।अधिकतर सिंधी थे ।महार यादव भी थे कुर्मी और ब्राम्हण बहुत कम थे पर शिक्षित थे ।

माँ का अपना एक स्थान था ।जब हम लोग कालेज में आये तो रसायन शास्त्र ,भौतिक शास्त्र ,वनस्पति और जीव विज्ञान की समझ भी विकसित हो गई थी ।हम लोगों से पूछती थीं "क्या पढ़ रहे हो ?" हमलोग भी माँ को सब कुछ एक बच्चे की तरह समझाते थे ।माँ अंधविश्वास जैसी विचारधारा से बाहर आ गई थी ।अब समझ गई थी कि दही के खराब होने का कारण बैक्टीरिया है ।गाय के खुर की बिमारी टोनही से नहीं किटाणु से फैलती है ।माता में नीम की पत्तियों को क्यों रखा जाता है ।मॉस फंजाई के चेप्टर पढ़ना पसंद करती थी ।

काका ये सब देख कर बहुत निश्चिंत रहते थे सैकड़ो बच्चों को शिक्षित करने के प्रयास में और अपने घर में कुछ पत्रिकाओ के मंगाने से माँ आज दूसरों के लिये उदाहरण बन गई थी ।हमें माँ ने पढ़ने में पूरा सहयोग दिया भले वह चुल्हे चौके में खटती रही ।अपने आंखो की रोशनी को धुंये में खोते हुये हमारे जीवन को रोशन कर दी ।माँ को प्रणाम ।

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