दीदी अपने कमरे में हमेशा पढ़ते ही दिखती थी । सुबह उठने की आदत थी क्योंकि काका किसी को देर तक सोने ही नहीं देते थे ।दो सफेद साड़ी ही दीदी के कालेज जाने के लिये रहते थे ।माँ को तीजा में पांच भाइयों से पांच साड़ी मिलती थी । उस साड़ियों को भी दीदी कालेज में पहना करती थी ।आज कितनी भी साड़ियां हो पर वह दिन जरुर याद आते है जब कपड़े दो बार ही खरीदते थे ।दीपावली में और गर्मी में जब किसी की शादी में जाना होता था ।
तब तो बस यही तीन चार साड़ियां होती थी जिसे माँ और दीदी दोनों पहनती थी । पैसा अनाज के लिये , पढ़ाने के लिये रखे बच्चों की फीस के लिये और गाँव में खेती के लिये होता था ।दीदी को ड्रामा में भाग लेने के लिये कपड़ो की जरुरत होती थी तो लोगों से मांग लेते थे ।आज की तरह किराये से कपड़े या सामान नहीं मिलते थे ।कुछ सामान हाथ से भी बनाते थे ।एक बार दीदी विस्वामित्र मुनी बनी थी तो दो लम्बी रुद्राक्ष की माला खरीदे थे जो आज भी है ।
दीदी नाटक में भाग लेती थी तो रिहर्सल के लिये रुकना पढ़ता था ।माँ बहुत चिंतित हो जाती थी ।
सन् दिसम्बर 1962 को मामा वरेडकर लिखित नाटक " तीसरी आत्महत्या " मे दीदी की मुख्य भूमिका थी ।जिसे देखने के लिये पूरे परिवार के साथ गये थे ।
इस नाटक के मंचन के लिये महिला महाविद्यालय रायपुर में एक स्थाई रंगमच बनाया गया जो आज भी स्थित है ।यह नाटक बहुत चर्चित हुआ ।सभी अखबारों में फोटो के साथ समाचार छपा ।नाटक के बाद दीदी को घर पहुंचाने की जिम्मेदारी जमाल्लुद्दीन भैय्या को दी गई थी । जमालुद्दीन भैय्या वही है जिनकी माँ से मेरी माँ चुड़ियां पहना करती थी
जनवरी 1963 में राजकुमार कालेज मे अंतर महाविद्यालय वाद विवाद प्रतियोगिता में भी दीदी ने भाग लिया था ।यह अंग्रेजी में थी ।विषय था " द बेस्ट ट्रेनिंग फॉर यूथ इज़ एब्सूयूटली फ्रीडम फ्राम रुल्स एन्ड रेगूलेशन " जिसमें दीदी को प्रथम पुरस्कार और द्वितीय पुरस्कार पी जी बी टी कालेज के एम एड के छात्र को मिला था ।तब प्रथम पुरस्कार की राशि सौ रूपये थी ।यह समाचार भी सभी अखबारों मे छपा था।
दीदी ने छत्तरपुर में 1963 जुलाई में संस्कृत में एम ए करने की तैयारी की पर बाद में हिंदी मे एम ए की परीक्षा दी ।छोटा सा रायपुर तब भी बड़ा लगता था ।कोई भी बात छुपी नहीं रहती थी ।
पं रविशंकर विश्वविद्यालय की स्थापना सन् 1964 में हुई तो पहिली परीक्षा 1965 में हुई जिसमें दीदी ने साइंस कालेज में प्रवेश लेकर एम ए अंतिम की परीक्षा दीं ।परीक्षा के तुरंत बाद दीदी की शादी भी हो गई ।दीदी जन्म से शादी तक दो तीन जोड़ी कपड़ों में ही रही ।पढ़ने के लिये एक छोटा सा कमरा रहा जो चाय कमरा कहलाता था ।पहले चुल्हे पर खाना बनता था तो आंगन में अलग से रसोई घर हुआ करता था ।यह पक्के मकान का एक कमरा था ।दीदी की शादी के बाद मै और भाई रवि वहाँ पढ़ते थे ।दो साल के बाद हम लोग उपर के कमरे में पढ़ने लगे ।दीदी का यह कमरा गैस चुल्हे के साथ सज कर चाय कमरा बन गया ।
आज सोचें तो ऐसा लगता है कि इतने कम कपड़ों में जीवन कैसे गुजरा होगा ? उस समय जब नारी शिक्षा की शुरुआत हो रही थी तब एक लड़की का नाटकों में भाग लेना कैसा रहा होगा ? आज की स्वतंत्रता में जीते लोग ये सब सोच नहीं सकते ।इसे याद करके मन इस कारण खुश हो जाता है कि कम साधनों के बीच भी लोग खुश रहा करते थे ।सब के बीच एक आत्मिय सम्बन्ध था ।
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