रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 48


दीदी की शादी का अनुभव भी बड़ा ही रोचक है ।सन् 1965 की 10 मई को दीदी की शादी हुई ।पहले शादियां घर पर ही होती थी ।गांव की संस्कृति से जुड़े लोग अपने बच्चों की शादी गांव में ही करते थे ।गांव मे शादी करने के क्ई फायदे थे ।मेहमानों को पूरा गाँव मेहमान समझता था ।लोगों के रुकने की और सोने की समस्या नही रहती थी ।

बारात आने पर स्वागत के लिये पूरा गाँव खड़ा रहता था ।खाना खाने के समय सब जमीन पर बैठते थे तो अपने आप लोग खाना परसने आ जाते थे ।सम्मान के साथ खाना परोसा जाता था ।कुछ लोग पत्तल उठाते थे तो कुछ सौंफ सुपारी लेकर खड़े हो जाते थे।

दीदी की शादी पांच दिन मे सम्पन्न हुई थी पर वो पांच दिन आज की शादी के एक दिन से कहीं बेहतर थी ।हर दिन हर रस्म को जीते थे लोग ।बहुत इत्मिनान से काम होता था ।बच्चे बहुत खुशियां मनाते थे ।

शादी दो लोगों की थी दीदी और हमारे बड़े पिताजी की बेटी कल्याणी दीदी की ।बड़े पिताजी ने कहा था दोनों के लिये जेवर गाँव में बना लेंगे ।पांच साड़ी भी खरीद देंगे पर ऐसा नहीं हुआ ।खेत बेच कर पैसा लाया गया उससे खाने पीने का खर्च हुआ ।बड़े पिताजी ने अपने बेटी के लिये पतला सा सोने का चेन बनवाया था और दीदी को सिर्फ दो साड़ी दिये थे ।माँ बहुत घबरा गई ।हमारी चार मामी और एक बड़ी माँ आई हुई थी ।बड़ी माँ की बेटी माँ क उम्र की थी ।बड़ी माँ हम सब को बहुत प्यार करती थी ।

माँ ने तुरंत अपने गले से बारह तोले की पुतरी निकाली और बड़ी माँ को दी और कहा दीदी "सत्या के लिये कुछ बनवा दो।" बड़ी माँ ने किसी को भेज कर अपने गाँव "भूमिया सांकरा " से बली राम सुनार को बुलवाया । रात तक तय हो गया क्या क्या बनाया जायेगा ।सुबह सुनार चला गया और चोथे दिन जेवर लेकर आ गया ।गले के लिये नेकलेस , अंगुठी दीदी और जीजाजी के लिये , कान का झुमका ,आठ चुड़ियां ।करधन पांच लड़ का ,मोटा पायजेब इस सब के साथ माँ ने कल्याणी दीदी के पति के लिये भी एक अंगुठी बनवाई ।

सुनार के जाने के बाद माँ बस से रायपुर आ गई ।यहाँ पर मालवीय रोड की दुकान घन्श्याम क्लाथ स्टोर से दस साड़ियां खरीदी और गांव लौट गई ।शादी में मामी बुआ लोग भी साड़ियां देते है ।दीदी के पास करीब बाईस साड़ियां हो गई थीं ।उस समय परिवार के लोग ही कलेवा बनाया करते थे हलवाई का काम सिर्फ सेंकना , पागना ही रहता था ।पांच सौ बरातियों का खाना और गांव के लोगों को खिलाने के लिये मिठाई पूड़ियां बनाते थे ।

दीदी की बारात आई तो गांव के बाहर मैंदान में स्वागत किया गया ।दोनों तरफ अखाड़े की जोर रही ।आतिशबाजी भी देखने लायक थी आज हम लोग आवाजों से स्वागत करते है पहले रोशनी हुआ करती थी मैदान में बांस गड़ा कर तरह तरह की आतिशबाजी करते थे ।बहुत धूमधाम से शादी हुई ।पहले बारात एक दिन रुकती थी ।दूसरे दिन शादी खतम हुई और ग्यारह बजे दीदी के ससुर गाँव के बीच चबुतरे पर तंम्बूरा लेकर बैठ गये ।

शादी में पहले बाराती लोक नाचा गम्मत लेकर आते थे ।जिससे उनका मनोरंजन होता था ।यहाँ पर बबाजी स्वयं बैठ गये थे ।वे भाठापारा के पास बोड़तरा गाँव के मालगुजार थे ।उनका नाम सूबेदार आड़िल था ।वे अपने चाचा के लड़के के साथ पंडवानी गाते थे ।आज शादी खतम होते ही वे अपने मन की खुशी जाहिर करने के लिये तम्बूरा पकड़ कर पंडवानी गाने लगे ।पूरे गांव के नब्बे फिसदी घरों में एक ही दिन शादी थी ।गांव में पैर रखने की जगह नहीं थी ।लोग पंडवानी का मजा लेते रहे । सुबह की बिदाई रुक गई फिर रात को पंडवानी गायन हुआ तब बिदाई हुई ।

उस साल दो माह तक खाना चलता रहा। गांव के नियम के अनुसार शादी मे पूरे गाँव को दो बार खिलाना पड़ता था ।एक बार मातृकापूजन के दिन और दूसरा फेरे या बहु आने के बाद ।एक साथ शादी होने के कारण लोग एक एक दिन बाद में खिलाये ।

इस अनोखी शादी को लोग याद करते है ।हम लोग तो चार दिन में जेवर बन कर आने को याद करते है ।संयुक्त परिवार में भी माँ ने अपनी बेटी के लिये गांव से कुछ नही पाया ।दो एकड़ खेत भी गये , पुतरी भी गई ,और दुकान में कपड़े की उधारी भी हुई ।माँ ने गांव की शादी को नमस्कार करके मेरी और मेरे छोटे भाई की शादी रायपुर में ही की ।

मेरे मामा मामी का सहयोग बहुत ही रहा ।माँ को मदद के लिये मामा तैयार लहते थे तो पांचो मामी का प्यार भी बरसता रहता था ।आज हम लोग ऐसे प्यार के लिये तरसते है ।कभी कभी लगता है कि काश वो दिन लौट आते जब सब प्यार से बरातियो के लिये खाना बनाते और मेहमान गर के सदस्य की तरह रहते ।मेहमान अपने साथ अपने बाड़ी की सब्जी , सूखी सब्जी ,चना मसूर कद्दू लौकी लेकर आते थे ।शादी सहयोग से होती थी ।बेटी की शादी में गाँव खड़ा रहता था ।

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