पहली होली हम लोग
मायके मे मनाते है ।घूम कर आने के बाद पेट दर्द की तकलीफ और ज्यादा बढ़ गई थी ।मै
माँ के घर रहने नहीं गई ।मार्च में होली थी तो एक सप्ताह पहले ही रहने चली गई ।हम
लोग होली भी मना लिये ।माँ मुझे हमारे फैमिली डाक्टर के पास ले गई ।हम लोग
होमियोपैथी लेते थे ।बूढ़ापारा मे डाक्टर बी सी गुप्ता के पास मां ने दिखाया ।तकलीफ
और लक्षण देखकर उन्होंने बताया कि यह एसिडीटी की शिकायत है पर अल्सर की शुरुआत लग
रही है ।मुझे मिर्च मसाला खाने से मना कर दिया गया ।
दो माह रहने के
बाद मायके से ससुराल आई ।ससुराल आते ही मेरी परेशानी बढ़ गई ।लाल खड़ी मिर्च को
सिलबट्टे पर पीस कर सब्जी में डाला जाता था ।उसे कैसे अलग से पीस कर डाले ? क्योंकि खड़ी
हल्दी और खड़ा धनिया सब पीस कर एक साथ डालते थे ।सब्जी मे तेल भी बहुत रहता था ।दो
घरों के बीच के खान पान मे जमीन आसमान का अंतर हो तो ,एक लड़की के लिये
बहुत मुसीबत होती है ।सब कुछ संंतुलन बना कर चलना पड़ता है ।लड़की को ही यह सब करना
पड़ता है ।मेरी जेठानी ने बहुत प्यार से तंंग करना शुरु किया।
बिना मिर्च के
सब्जी बन नहीं सकती थी क्योंकि मसाले अलग कैसे पीसें ? तेल भी कम नहीं
हो सकता था क्योंकि मसाले नहीं भुन पाते ? सास का व्यवहार भी अब समझ मे आने लगा था ।मेरी माँ का
व्यवहार बहुत ही प्यार करने वाला था ।दूसरों की मदद करने को तैयार रहती थी ।वही
हमारी सास बहुत ही स्वार्थी थी ।सास ससुर दोनो को बच्चों से ज्यादा उनके पैसे से
प्यार था ।कुछ काम करके खुश रखो या फिर पैसे देकर खुश करो ।
हर बात पर पैसा
ही रहता था ।ससुर की पेंशन अच्छी थी घर नूरानी चौक राजातालाब में था। घर पर तीन
दुकान बना कर किराये से दिये थे किराना स्टोर चलाने वाले सोनी जी अपनी पत्नी के
साथ रहते थे ।एक मेडिकल स्टोर था ।एक होटल था । घर मे गाय थी ।मुर्गी भी पाले थे
।तीन रिक्शा रखे थे जिसे किराये पर देते थे ।पर हर माह की पूरी तनख्वाह दोनों बेटे
माँ के हाथ मे देते थे ।
रोज इनकी सायकिल
में हवा भरवाते थे ।रोज सुबह पचास पैसे ससुर से मांगते थे क्योंकि भिलाई नगर से
सिविक सेंटर तक टेम्पो से जाते थे ।शायद आज के बच्चों ने तो टेम्पो देखा भी नहीं
होगा ।तीन चक्के की बड़ी आटो से भी बड़ी होती थी ।यह भिलाई मे सबसे ज्यादा चला करती
थी ।यदि ससुर न हों तो पचास पैसे नहीं मिलते थे और उस दूरी को पैदल ही चल कर पूरी
करते थे ।रेल का पास बनवाने के लिये साढ़े सत्रह रुपये भी ओवर टाइम करके कमाना पड़ता
था ।
ऐसा मैने कभी
देखा नहीं था ।हमारे मायके मे एक चमड़े के बैग में पैसा रखा रहता था ।एक डायरी और
पेंसिल रखा रहता था ।मै या माँ जो भी जितना भी पैसा निकालते थे उसमे लिख देते थे
।हमको अपने काका को बताने की जरुरत नहीं होती थी ।यहां पर पैसे का हिसाब किताब
बहुत ही गोल मोल था ।महिने मे एक साबुन एक छोटी तेल की शीशी सब को दे देते थे ।सब
बाकी के शौक चाहे जैसे पूरा करो ।मेरा देवर गांधी मेडिकल कालेज भोपाल मे पढ़ रहा था
।उसे तीन सो पचास रुपये मेरे पति अपने बैंक मे ही अपने तनख्वाह से भेज देते थे
।बाकी पैसा सास को देते थे ।
तनख्वाह वाले दिन
साढ़े मात बजे सोने न जाकर दरवाजे पर बैठे रहती थी या फिर अपने कमरे के दरवाजे पर
बैठी रहती थी ।सास को लगता था कि अपने कमरे मे जाने के बाद पैसा पत्नी को न दे दे
या फिर कम पैसा दे ।जेठ और मेरे पति दोनों ही पैसा दरवाजे पर ही सास के हाथ मे रख
देते थे ।मै संयुक्त परिवार मे रही नहीं थी मेरे चाचा उनके बच्चे , बुआ के दो बेटे , मामा के बेटे
हमारे साथ रहते थे ।रायपुर मे पढ़ने के लिये आये थे ।मेरे काका उनसे कुछ नही लेते
थे बल्कि "विद्या दान परम दान " की सोच रखते थे ।खाना कापी पुस्तक और
पेन स्याही सब खरीद कर देते थे।सब एक जैसा खाना खाते थे ।मैने जब यह सब देखा तो और
तनाव मे आ गई थी ।
सास दोपहर को फल
वाली आती तो चार केले खरीदती थी ।दो बच्चों को और दो स्वयं खा लेती थी ।हम लोगों
को पूछती भी नहीं थी ।मेरी जेठानी और मुझे कहती थी कि खाना है तो तुम लोग भी खरीद
लो ।यदि कुछ खरीदते तो पति से पूछती कि पैसा कहां से आया तनख्वाह बढ़ गई है क्या ? उनके कहने का
मतलब होता था कि पैसा बचा कर रख लिये है तभी कुछ खरीद रहे है ।हर दूसरे महिने या
तीसरे महिने मेरे ससुर बैंक जाकर पूछते थे कि तनख्वाह कितनी मिलती है ।सरकारी
नौकरी मे थे तब तो उन्हें पता होना चाहिये कि तनख्वाह साल मे एक बार ही बढ़ती है ।
जेठ पी एच ई मे
थे तो उनकी कुछ ऊपर की कमाई होती थी ।रात को वे कभी कभी पी कर भी आ जाते थे ।मैने
देखा कि मेरे पति भी दस बजे आने लगे थे ।मैने पूछा तो बोले काम अधिक था ।महिने भर
बाद बताये कि ओवर टाइम कर रहा था ।तुम मेरी जिम्मेदारी हो तो तुम्हारे लिये भी तो
पैसा चाहिये ।और मेरे हाथ मे कुछ पैसे रख दिये याद नहीं है ठीक से पर तीन चार सौ
थे करीब ।मेरे तो आंंसू आ गये ।सही है फल खाने की आदत थी पर यहाँ अपने पैसे से
खरीदना पड़ता था । दूध भी नहीं देते थे मुझे रोज दूध पीने की आदत थी ।
ठेला वाला शाम को
आता था तो हर महिने चूड़ी बिंदी ससुर जी खरीद देते थे ।आलता खरीदते थे ।क्योंकि
हमारी सास आलता लगा कर ही रहती थी ।खूब अच्छे से श्रंगार किया करती थी ।ससुर सास
का कहना था कि पत्नी को ऐसे ही रहना चाहिये इससे पति की उमर बढ़ती है ।यह सब खरीदने
के पीछे उनका स्वार्थ था कि बेटे की उमर बढ़ेगी ।गन्ना खरीद कर बढ़िया दांतो से छिल
कर खाती थी ।मौसम के हर फल पर उनका अधिकार था ।पोखरा , सिंघाड़ा , खोखमा , संतरा , अंगूर ,चीकू , के साथ साथ मौसम
की सब्जी भी खाती थी ।बस हम दोनों देरानी जेठानी को खरीद लो कह देती थी ।
पोखरा कमल का फल
है और खोखमा कुमुदनी का फल है ।यह दोनों फल को छत्तीसगढ़ मे बहुत खाते है और
फलाहारी भी बनाते है खोखमा का बीज खसखस के दानों की तरह होता है इसे सुखाकर पीस
लेते है और सिंघाड़े के आते की तरह ही फलाहार में उपयोग करते हैं ।कभी कभी अपने
पसंद की सब्जी बना लेती थी पर यह साल मे दो तीन बार ही होता था ।मैने वहा कभी
नास्ता बना कर रखते नहीं देखी।सब दोनों बहुओं के घर से ही आता था ।
वह एक चीज़ बहुत
अच्छी बनाती थी "पिड़िया "। यह छतीसगढ़ का खास कलेवा है ।यह राजीम के
"राजिवलोचन "मंदिर मे भोग के रुप मे मिलता है ।यह चांवल के आटे से बनता
है । किसी भी त्योहार मे कुछ भी पक्का नास्ता नहीं बनता था ।होली मे उड़द दाल के
बड़े , दीपावली मे शक्कर
पारा , आलू के रसगुल्ले , और बेसन का सेव
बनाते थे ।खीर पूरी जो मेरे मायके में बनते रहती थी वह यहां नहीं बनता था ।
भाजी अक्सर शाम
को बनती थी । क्योंकि मुर्गा मटन बनता था ।उस भाजी को कढ़ाई मे ही हमारी जेठानी आठ
हिस्से मे बांट कर रख देती थी ।इससे सबको बराबर मात्रा मे सब्जी मिले ।हम तीन लोग
ही शाकाहारी थे उन्हें भी कम सब्जी से काम चलाना पड़ता था ।
ऐसा घर और ऐसा
परिवार मैने कहीं न सुना था और न देखा था ।इन सब के बीच ताल मेल बैठाना बहुत कठिन
हो रहा था ।तनाव बढ़ रहा था तो साथ ही पेट की तकलीफ भी बढ़ रही थी । आज भी मै इसे
समझने की कोशिश करती हूँ पर समझ नहीं पाती ।यह पैसा का मोह बुढ़ापे के डर के कारण
था कि वास्तव मे मोह ही था ।कभी किसी बेटे बहू के लिये कपड़ा नहीं खरीदे थे ।ननंद
के लिये ही खरीदते थे ।हम लोग मायके का ही पहनते थे ।जेठानी कभी कभी खरीद लेती थी
तो घर मे तनाव पैदा होता था ।
इस तनावपूर्ण
वातावरण मे जीवन गुजर रहा था चार पांच महिने मे ही जितना समझने की कोशिश करती
सम्बन्धों के बीच के प्यार को वह उतना ही उलझते जा रहा था ।
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