गीतांजली नगर खेतों पर बसा था ।सात एकड़ पर ही प्लाट बने थे ।बाकी की जमीन भी बिकने के लिये खाली पड़ी थी ।कविता नगर बन रहा था ।हमारे घर से खम्हारडीह दिखाई देता था ।छत से अनुपम नगर के बाद से जाने वाली वाल्टेयर लाइन दिखाई देती थी ।अक्सर हम लोग छत से देखा करते थे ।घर के पीछे भी छोटी लाइन है।यह रायपुर से धमतरी जाती है ।इस रेल के जाने से समय पता चल जाता है ।
दूर के खेतों मे धान लगा रहता था तो किसान हमारे घर के पास से जाते थे ।बारीश मे खेतों मे थरहा लगाने जाते थे ।बहुत बारीश होती थी ।तब खेत मे पानी भर जाता था ।कालोनी का रोड ऊंचा था और प्लाट नीचे था ।सारे प्लाट मे पानी भर जाता था ।पहले बारीश भी बहुत होती थी ।इस पानी मे मछलियां आ जाती थी ।जब तेज बारीश होती थी तो रास्ते के बहते हुये पानी में मछलियाँ कूदते रहती थी ।छोटे छोटे कछुये भी घूमते थे बहुत से लोग मछली पकडधने आते थे ।कुछ लोग कछुआ भी पकड़ कर ले जाते थे ।पहली बार मुझे पता चला कि कुछ लोग याने केंवट लोग उसकी पूजा करते हैं और कुछ जाति के लोग उसे खाते हैं ।
बारीश में खुमरी ओढ़ कर किसान लोग आते थे ।यह सब देख कर गांव की याद आती थी ।यह खुमरी पत्तो से बना रहता है ।कुछ बांस की काड़ियों से सहेज कर कोन की आकृति की तरह बनाई जाती है ।तेज गर्मी मे धूप से बचाती है और बारीश मे पानी से बचाती है ।देशी छतरी जो धूप और पानी से पूरे शरीर की रक्षा करती है ।पर्यावरण की रक्षा करती है।यस मछली दीपावली तक रहती थी ।जब पानी कम हो जाता था तो प्लाट का पानी कम हो जाता था ।इस समय बच्चे पानी को कपड़े मे छान कर मछली पकड़ते थे।हम लोग अपने घर के सामने कुर्सी लगा कर बैठे रहते थे ।पानी जब पूरा भरा रहता था तब तेली बांधा से रेल की पटरी को पार करके कुछ सिंधी परिवार आकर कपड़े धोया करते थे ।मजदूर लोग नहाते थे ।
धान की कटाई होती थी तो हँसिया लेकर जाती महिलायों को देखकर लगता था कि कोई फिल्म देख रहे है ।दोपहर के बआद बैलगाड़ी से धान की बालियां ले जाते थे ।कभी शाम को भी बैलगाड़ी जाती थी।घुंघरु की आवाज और बैलगाड़ी के नीचे जलती हिलती लालटेन को देखकर बहुत ही अच्छा लगता था ।रात को गुनगुनाते गाते लोग जाते थे तो उनकी दूरी का आभास उनकी जलती हुई बीड़ी से होती थी ।गर्मी के दिनों मे भी गर्मी का आभास नही होता थी ।मै अपने घर के आँगन मे ही बैठ कर कपड़ो की सिलाई करते रहती थी ।कहीं भी जाओ तो ताला बंद करने की जरूरत नहीं होती थी ।गर्मी मे बकरी चराने वाले आया करते थे ।बांसुरी से कोई न कोई धुन छेड़ते रहते थे ।हमारे घर पर ही पानी पीने आते थे ।
बारीश के दिनों मे पानी कहाँ गिर रहा है यह पता चल जाता था ।दूर दूर तक कोई घर नहीं था ।बहुत दूर मे बारीश होती तो हम लोग देख लेते थे ।वह पानी की बौछार धीरे धीरे हमारे घर की ओर बढ़ते दिखती तब मै अपने कपड़े निकालने जाती थी ।धीरे से पानी हमारे घर के ऊपर गिरने लगता था ।कभी भी दूर में पानी गिरता था तो वह वहीं गिर कर बंद हो जाता था ।बचपन मे सुनी बातों को देख रही थी ।लोग कहते थे कि हमारे गांव मे बारीश हुई और बाजू के गांव मे धूप निकली थी ।बहुत रोमांचक लगता था जब एक जगह पानी गिरते हुये देखती थी और दूसरी ओर चटकली धूप दिखाई देती थी ।यह सब बहुत दिन तक नहीं चला ।मकान बनने लगे और यह सब छुपने लगा ।
बारीश के बाद चारो तरफ तरह तरह की भजियां ऊग जाती थीं ,और भी बहुत से पौधे उग जाते थे ।इसे तोड़ने के लिये बहुत सी महिलाएं आती थी ।मेरी माँ नेक्षदेखा तो कहने लगी कि कभी यह भाजी तोड़ कर भेजना ।अब मै मुस्केनी भाजी को तोड़ने लगी ।यह एक बेल होती है जो जमीन पर ही फैलती है ।इसके एक एक पत्ते को तोड़ना पड़ता है ।यह भाजी किडनी के लिये फायदेमंद होती है ।आजकल यह भाजी छत्तीसगढ़ से आस्ट्रेलिया जाती है ।वहाँ पर शाम को रास्ते के किनारे मे बिकती है ।यह डिब्बे में बंद मिलती है ।वहाँ पर यह मुस्केन के नाम से मिलती है ।यह औषधि के काम मे आती है ।यह छत्तीसगढ़ मे भाजी के रुप मे खाई जाती है ।
छोटा सा पौधा होता है ,जिसे भचकटइया कहते है ।यह कटिला होता है ।इसमे छोटे छोटे भटे की तरह फल लगते हैं।यह खांसी और स्वांस के लिये फायदेमंद रहता है ।इसकी भी सब्जी बनाई जाती है ।एक कैंची लेकर मै उस भजकटइया के फल को काटने जाती थी ।आधी बोरी तोड़ कर लाती थी ।भाजी और भजकटइया को शनिवार को मेरे पति माँ के पास छोड़ने जाते थे ।वहां पर तीन चार परिवार के लोग बांट कर खाते थे ।इसकी सब्जी बनाने का तरीका भी अलग है ।इस फल को पत्थर से दबा के फोड़ा जाता है और उसका पूरा बीज निकाल कर धो लेते है ।यह सिर्फ छिलके के रुप मे बच जाता है ।अब मसूर के साथ इसे उबाल लेते है और उसमे नमक हल्दी और थोड़ा सा बेसन ,रस गाढ़ा करने के लिये मिला लेते है।इसमे मठा या दही डालते है ।अब इसे राई की छौंक लगा कर लहशुन और खड़ी लाल मिर्च से बघार लेते है ।इसे अच्छे से पका लेते है ।खट्टे मे मसूर के साथ बहुत स्वादिष्ट लगता है ।
मैने अपने घर के सामने अमलताश के तीन पेड़ लगाये थे ।उसमे से एक पेड़ ही बचा था ।घर के अंदर मधुकामिनी ,पारिजात, डेहलिया ,गुलाब और सेवंती लगाये थे .मोंगरा भी था ।हमारे घर के फूल को दूर दूर सेक्षलोग देखने आते थे ।पर आज यह सब एलबम मे ही दिखाई देते है ।एक अमलताश के पेड़ को बहुत सहेज कर बड़ा कर रही थी ।नीला थोथा याने कापर सल्फेट को चुने में घोल कर लगाती थी ।उसके चारो तरफ ईंटे का घेरा लगा कर रखी थी ।पेड़ की ऊंचाई बढ़ती थी तो मै उसके घेरे के ऊपर और ईंट चढ़ाती थी ।घर सामने की तरफ ताड़ का पेड़ था उसमे से एक आदमी ताड़ी निकालता था ।कमर मे रस्सी बांध कर ,एक मटकी लेकर ऊपर चढ़ता था ।मटकी को ऊपर बांध करके तने मे एक घाव कर देता था ।पेड़ से निकलने वाले दूध को ताड़ी कहते है।यह रस मटके मे एकत्र होता था ।उसे दूसरे दिन उतार लेते थे ।हम लोग दानी स्कूल जाते थे तो बुढ़ा तालाब के किनारे बहुत से ताड़ के पेड़ थे वहाँ पर इसी तरह से ताड़ी निकालते थे ।इतने सालों के बाद यहां पर ताड़ी निकालते देखी थी ।दो साल पहले वह पेड़ गिर गया ।उसे कोई काट नही सका था ।आधा काटने के बाद जब मजदूर रात को सोया तो उसे सपने मे सांप ने आकर कहा कि इस पेड़ पर मै रहता हूँ ,इसे मत काटो ।काटोगे तो तुम्हारा परिवार नष्ट हो जायेगा ।बस इस तरह से यह पेड़ बच गया था और अपनी पूरी जिंदगी शान से खड़ा रहा ।
यह संस्मरण पूरी तरह से प्रकृति की याद का ही है ।आज वह नहर केनाल रोड बन गया है ।वाल्टेयर लाइन दिखाई नही देती ।अब वह बारीश भी नही दिखाई देती है ।अब तो बारीश भी नहीं होती है ।एक साथ एक दिन गिरकर अपना कोटा पूरा कर लेती है ।अब का लोनी बस चुकी है ।अब न तो मुस्कैनी भाजी है और न भजकटैइया है ।कुछ जगह पर रास्ते के किनारे दिख जाते है पर यहां वहां कुत्ते की गंदगी के कारण उसे तोड़ा भी नहीं जा सकता है ।सिर्फ देख सकते हैऔर उसके गुणों को ,स्वाद को याद कर सकते हैं ।शहरों का विकास जरुरी है पर उसकी गुम होती खूशबू आज भी मन को पीड़ा देती है ।वह एहसास और उसकी खूबसूरती मन मे आज भी हरी है उन पौधौं की तरह ।
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