कुछ हसीन पल से आप लोग सोच रहे होंगें की कौन सा हसीन पल? जीवन में तो बहुत से हसीन पल है।सही बात है। मैं बचपन के उस हसीन पल की बात कर रही हूं जब सबको गर्मी की छुट्टियों का इंतजार रहता था। छुट्टी में सब गांव जाते थे या फिर अपने मामा के गांव जाते थे। मैं भी अपने मामा के गांव जाती थी। मेरे बराबर उम्र की मेरे मामा की बेटी थी। उससे छोटी भी एक बहन थी, हम लोग बहुत मजे करते थे। बेर खाना ,ईमली का लाटा बना कर खाना। बासी के साथ लाल मिर्च और लहसुन की चटनी खाना। कनकी का पेज पीना और दोपहर कर सोकर उठे तब बोरे खाना।
लड़कियों को बांस की काड़ियों में रंग बिरंगा धागा भर कर पंखा बनाना सिखाते थे तो लड़के गिल्ली डंडा खेलते थे। गांव में गर्मियों में एक काम और करते थे, बेर को मूसर से कूट कर पाऊडर बनाते थे। गुठली अलग हो जाती थी। पाऊडर को नमक मिर्च डाल के थोड़ा और कुटतठिया बनाते थे। गुठली को मैं रखती थी और दोपहर भर बैठ कर गुठली को फोड़कर चिरौंजी निकालती थी। शाम को लोटे में ठंडा पानी लेकर उसमें नमक डाल कर चिरौंजी को डालकर शरबत बनाते थे। पीते समय जब चिरौंजी आती थी तो उसे चबाते थे और नमक वाला पानी पीते थे। " यमी यमी" उसका स्वाद आज भी जीभ में हैं।
अब आती है इमली के लाटा बनाने की बात। हम लोग ईमली को फोड़ कर छिलका अलग करते थे। यह सब खेलते खेलते करते थे। फिर उसके बीज निकलते थे। उसके बाद का काम माँ करे या फिर मामी करे। उसको कूट कर उसमें नमक मिर्च और थोड़ा सा गुड़ डालकर लाटा बनाती थी। बांस की छोटी छोटी लकड़ी में लॉलीपाप की तरह चिपका देते थे। लिखते हुये भी मुंह में पानी आ रहा है। ईमली की चटनी के साथ कभी कभी बोरे भी खाते थे। इस लाटा को चाटते हुये घूमते रहते थे। दोपहर को तालाब चले जाते थे तो आम के पेड़ से आम भी तोड़ कर ले आते थे। पानी में खेलने का मजा ही कुछ और है। यह सब छूटते चला गया पर गांव में रहने वाले अब भी मजे लेते हैं।अब
अब गांव में भी टी वी आ गया है। सबके पास मोबाइल हो गया है। गांव के बियारा में अब राचर नहीं गेट लग गया है। अब ट्रेक्टर से बोवाई और कटाई ,मिंजाई भी हो जाती है। अब धान ओसाने का दृश्य बहुत कम देखने में आता है।दौरी में मिंजाई भी कम जगहों पर होता है। शहरीकरण ने बहुत कुछ बदल दिया है। इसके साथ ही साथ नये अविष्कार के साथ साथ वैश्विकरण ने खान पान ही बदल दिया है।
आज वह बचपन लौट कर नहीं आ सकता। वह खानपान और रहनसहन भी नहीं दिखाई देता है। हमने बचपन में जो जीवन जिया है वह अब जी नहीं सकते। हमने विकास के नाम पर विदेशी जीवन शैली को अपना रहे हैं। आज हम च्विंगम, टॉफी, कुरकुरे, चिप्स, कैडबरीस अपने बच्चों को देते हैं। हाथ में मोबाइल हैं खाने में पिज्जा, मोमोस, चाऊमीन है। आज ईमली बाजार से लाते हैं तो पानी पुरी के लिये। उसका लाटा तो बना नहीं सकते तो बच्चे कहां से देखेंगे।इसका मजा तो बाजार से लिये टॉफी में मिल जाता है। कच्ची ईमली ,चटपटी ईमली के नाम से भी लाटा मिलना है पर हाथ से बना कर खाने का अपना मजा था। ईमली भी घर की ही रहती थी। बेर की मुठिया आज भी वैसी ही है। मैं राजिम गई थी तो वहां एक गुजराती परिवार के यहां गये थे। उसने बहुत से नाश्ते के साथ बेर की चपटी चपटी एक रूपये के सिक्के के आकार की मुठिया लाकर.दी। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतना बढ़िया साफ सुधरा बेर की टिक्की मिल रही है तो उसने करीब बीस मेरे लिये रख दी। आज बेर भी बाजार से खरीद कर लाते हैं वह भी मीठा नहीं रहा तो मजा नहीं आता है। फिर गुठली भी कितनी निकलेगी? जितनी भी गुठली निकले मैं उसे फोड़कर उसकी चिरौंजी खाती ही हूं। गांव में बड़े बड़े बेल तोड़कर लाते थे तो उसे भी दोपहर को खाते थे और उसकी खोटली से इक्कीस बार पानी पीते थे। कुछ बड़े हुये तो यह सब अंधविश्वास सा लगने लगा। बाद में पता चला कि बेल खाने के बाद एक गिलास पानी पीना ही चाहिये क्योंकि बेल पेट में जाकर फूलता है तो उसे पानी की जरुरत होती है। हमारे बुजुर्ग इस बात को जानते थे तभी तो जितना बड़ा बेल का टुकड़ा खाथे थे उसकी खोतली में ही इक्कीस बार पानी पीते थे।
गर्मी में खोइला भी बहुत खाते थे। सेम, कद्दू, , भटा, चना भाजी, पटवा भाजी, जिमिकांदा खाते थे। समय ने तो बदल दिया इसकी जगह हरी सब्जियों ने ले लिया। अभी कोरोना की महामारी फैलने के कारण 21 दिन का लॉकडाऊन हुआ था तब सबको ये सूखी सब्जियां याद आ रही थी। सच है पुराने खानपान पौष्टिक तो हैं ही पर बदलते समय दिखाई नहीं देते हैं। कभी बाड़ी में सब्जी न हो तो सूखी सब्जियां काम आती थी।
पानी ठंडा करने का अनोखा तरीखा भी था। हम लोग एक एक लोटा अपने लिये रख लेते थे। खपरे वाला पटाव का मकान होता था। हम लोग लोटे में पानी भरकर उसके मुंह में कपड़ा ढक कर उलटा कर देते थे और उसे छानही की लकड़ी पर बांध देते थे। लोटा उल्टा लटका रहता था। एक घंटे के बाद पानी एकदम हो जाता था। उसे दोपहर को पीते थे और बचे पानी का शरबत बना कर पीते थे। शाम को और पानी टांग देते थे। इस पानी को रात को पीते थे। ये सब बातें आज याद आ रही है। आज बच्चों के खाने का तरीका बदल गया है पर उस स्वाद को जरुर लेत है जो खट्टी इमली के रुप में मिलती है।ठंडे पानी के लिये फ्रीज है।सूखी सब्जियों का स्वाद नही लिया है पर चना जरुर खाते हैं।
आज घूमने के लिये गार्डन है। पहले घूमने गाँव जाते थे तो आम के बगीचे,नहर और तालाब का मजा लेते थे। मामी नानी के हाथ का बना तरह तरह की चीजें खाया करते थे।आज तो किसी के घर रहने ही नहीं जाते हैं।
आज बच्चे मोबाइल और टी वी में बंध कर रह गये हैं।मिकी माऊस, डोलाल्ड डक की पुस्तकें पढ़ते थे उसे आज के बच्चे टी वी पर मोबाइल पर देख रहे हैं। पहले इंसान इंसान से जुड़ा रहता था पर आज घर में चार.लोग हैं तो सबके बीच एक दूरी रहती है।एक कमरे में बैठ कर भी एक दूसरे से कोई सम्बंध नहीं रहता है। अकेले बैठे बैठे उस सुनहरे पल को सिर्फ याद कर सकते है पर उसमें जी नहीं सकते है।
लड़कियों को बांस की काड़ियों में रंग बिरंगा धागा भर कर पंखा बनाना सिखाते थे तो लड़के गिल्ली डंडा खेलते थे। गांव में गर्मियों में एक काम और करते थे, बेर को मूसर से कूट कर पाऊडर बनाते थे। गुठली अलग हो जाती थी। पाऊडर को नमक मिर्च डाल के थोड़ा और कुटतठिया बनाते थे। गुठली को मैं रखती थी और दोपहर भर बैठ कर गुठली को फोड़कर चिरौंजी निकालती थी। शाम को लोटे में ठंडा पानी लेकर उसमें नमक डाल कर चिरौंजी को डालकर शरबत बनाते थे। पीते समय जब चिरौंजी आती थी तो उसे चबाते थे और नमक वाला पानी पीते थे। " यमी यमी" उसका स्वाद आज भी जीभ में हैं।
अब आती है इमली के लाटा बनाने की बात। हम लोग ईमली को फोड़ कर छिलका अलग करते थे। यह सब खेलते खेलते करते थे। फिर उसके बीज निकलते थे। उसके बाद का काम माँ करे या फिर मामी करे। उसको कूट कर उसमें नमक मिर्च और थोड़ा सा गुड़ डालकर लाटा बनाती थी। बांस की छोटी छोटी लकड़ी में लॉलीपाप की तरह चिपका देते थे। लिखते हुये भी मुंह में पानी आ रहा है। ईमली की चटनी के साथ कभी कभी बोरे भी खाते थे। इस लाटा को चाटते हुये घूमते रहते थे। दोपहर को तालाब चले जाते थे तो आम के पेड़ से आम भी तोड़ कर ले आते थे। पानी में खेलने का मजा ही कुछ और है। यह सब छूटते चला गया पर गांव में रहने वाले अब भी मजे लेते हैं।अब
अब गांव में भी टी वी आ गया है। सबके पास मोबाइल हो गया है। गांव के बियारा में अब राचर नहीं गेट लग गया है। अब ट्रेक्टर से बोवाई और कटाई ,मिंजाई भी हो जाती है। अब धान ओसाने का दृश्य बहुत कम देखने में आता है।दौरी में मिंजाई भी कम जगहों पर होता है। शहरीकरण ने बहुत कुछ बदल दिया है। इसके साथ ही साथ नये अविष्कार के साथ साथ वैश्विकरण ने खान पान ही बदल दिया है।
आज वह बचपन लौट कर नहीं आ सकता। वह खानपान और रहनसहन भी नहीं दिखाई देता है। हमने बचपन में जो जीवन जिया है वह अब जी नहीं सकते। हमने विकास के नाम पर विदेशी जीवन शैली को अपना रहे हैं। आज हम च्विंगम, टॉफी, कुरकुरे, चिप्स, कैडबरीस अपने बच्चों को देते हैं। हाथ में मोबाइल हैं खाने में पिज्जा, मोमोस, चाऊमीन है। आज ईमली बाजार से लाते हैं तो पानी पुरी के लिये। उसका लाटा तो बना नहीं सकते तो बच्चे कहां से देखेंगे।इसका मजा तो बाजार से लिये टॉफी में मिल जाता है। कच्ची ईमली ,चटपटी ईमली के नाम से भी लाटा मिलना है पर हाथ से बना कर खाने का अपना मजा था। ईमली भी घर की ही रहती थी। बेर की मुठिया आज भी वैसी ही है। मैं राजिम गई थी तो वहां एक गुजराती परिवार के यहां गये थे। उसने बहुत से नाश्ते के साथ बेर की चपटी चपटी एक रूपये के सिक्के के आकार की मुठिया लाकर.दी। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतना बढ़िया साफ सुधरा बेर की टिक्की मिल रही है तो उसने करीब बीस मेरे लिये रख दी। आज बेर भी बाजार से खरीद कर लाते हैं वह भी मीठा नहीं रहा तो मजा नहीं आता है। फिर गुठली भी कितनी निकलेगी? जितनी भी गुठली निकले मैं उसे फोड़कर उसकी चिरौंजी खाती ही हूं। गांव में बड़े बड़े बेल तोड़कर लाते थे तो उसे भी दोपहर को खाते थे और उसकी खोटली से इक्कीस बार पानी पीते थे। कुछ बड़े हुये तो यह सब अंधविश्वास सा लगने लगा। बाद में पता चला कि बेल खाने के बाद एक गिलास पानी पीना ही चाहिये क्योंकि बेल पेट में जाकर फूलता है तो उसे पानी की जरुरत होती है। हमारे बुजुर्ग इस बात को जानते थे तभी तो जितना बड़ा बेल का टुकड़ा खाथे थे उसकी खोतली में ही इक्कीस बार पानी पीते थे।
गर्मी में खोइला भी बहुत खाते थे। सेम, कद्दू, , भटा, चना भाजी, पटवा भाजी, जिमिकांदा खाते थे। समय ने तो बदल दिया इसकी जगह हरी सब्जियों ने ले लिया। अभी कोरोना की महामारी फैलने के कारण 21 दिन का लॉकडाऊन हुआ था तब सबको ये सूखी सब्जियां याद आ रही थी। सच है पुराने खानपान पौष्टिक तो हैं ही पर बदलते समय दिखाई नहीं देते हैं। कभी बाड़ी में सब्जी न हो तो सूखी सब्जियां काम आती थी।
पानी ठंडा करने का अनोखा तरीखा भी था। हम लोग एक एक लोटा अपने लिये रख लेते थे। खपरे वाला पटाव का मकान होता था। हम लोग लोटे में पानी भरकर उसके मुंह में कपड़ा ढक कर उलटा कर देते थे और उसे छानही की लकड़ी पर बांध देते थे। लोटा उल्टा लटका रहता था। एक घंटे के बाद पानी एकदम हो जाता था। उसे दोपहर को पीते थे और बचे पानी का शरबत बना कर पीते थे। शाम को और पानी टांग देते थे। इस पानी को रात को पीते थे। ये सब बातें आज याद आ रही है। आज बच्चों के खाने का तरीका बदल गया है पर उस स्वाद को जरुर लेत है जो खट्टी इमली के रुप में मिलती है।ठंडे पानी के लिये फ्रीज है।सूखी सब्जियों का स्वाद नही लिया है पर चना जरुर खाते हैं।
आज घूमने के लिये गार्डन है। पहले घूमने गाँव जाते थे तो आम के बगीचे,नहर और तालाब का मजा लेते थे। मामी नानी के हाथ का बना तरह तरह की चीजें खाया करते थे।आज तो किसी के घर रहने ही नहीं जाते हैं।
आज बच्चे मोबाइल और टी वी में बंध कर रह गये हैं।मिकी माऊस, डोलाल्ड डक की पुस्तकें पढ़ते थे उसे आज के बच्चे टी वी पर मोबाइल पर देख रहे हैं। पहले इंसान इंसान से जुड़ा रहता था पर आज घर में चार.लोग हैं तो सबके बीच एक दूरी रहती है।एक कमरे में बैठ कर भी एक दूसरे से कोई सम्बंध नहीं रहता है। अकेले बैठे बैठे उस सुनहरे पल को सिर्फ याद कर सकते है पर उसमें जी नहीं सकते है।
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